भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एकरोॅ नै छौं कोनो निदान / कैलाश झा ‘किंकर’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कानी गाय के भिन्ने बथान ।
एकरोॅ नै छौं कोनो निदान ।।

पछिया-पूरबा कतनो बहतै, जिद्दी छै वें सब कुछ सहतै ।
जंगल मेॅ उगलोॅ गुलाब छै, अपने खिलतै अप्पन झरतै ।
गमला मेॅ नै ऐतोॅ कहियो
अलगे छै औक्कर पहचान ।

साथ रहै मेॅ जी मिचलैतै, अप्पन खिचड़ी अलग पकैतै ।
केकरो कोच नै छै दुनिया मेॅ, हरदम ई बतिया दुहरैतै ।
रूखा-सूखा खैतै तैय्यो
छाती कैने चलै उतान ।

कुच्छू मेॅ नै देथौं चन्दा, कहथौ थे सब गोरख धन्धा ।
बनलै नै कहियो सामाजिक, अलबत्ते लागै छै बन्दा ।
बाबा धाम मेॅ चुप्पे-चापे
फेनु करतै कन्यादान ।

बड़का बेटा दिल्ली गेलै, छोटको डंडा गुल्ली खेलै ।
मूर्ख आदमी जिदिऐलै तेॅ संतानो सब मूर्खे भेलै ।
औंठा छाप बनल परिवारोॅ
तैय्या देखोॅ अजगुत गान ।

खुद केॅ पंडित- ज्ञानी मानै, लड़ै-भिडै लेॅ कूदै फानै ।
भूत भगाबै केॅ आडंबर, घोंघा केॅ नै मंतर जानै ।
काली आबै, दुर्गा आबै
ओकरा देह पर आबै मशान ।