भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एकली मैं बैठी ताल पै री / मेहर सिंह
Kavita Kosh से
दिन ढलग्या हुई शाम सै री, हेरी मेरे आए ना भरतार
एकली मैं बैठी ताल पै री।टेक
ऊंच नींच किमैं बण गई री बात पिया नै सुण लई री
फेर मेरा जीणा सै धिक्कार, एकली मैं बैठी ताल पै री।
पिया तो मेरे आए नहीं री, हुई मन चाही नहीं री
मेरी लोग करैं तकरार, एकली मैं...।
कहूं थी साथ ले चलिए हो, नहीं विप्ता के दिन जा लिए हो
मेरी जिन्दगी सै बेकार, एकली मैं बैठी...।
मेहर सिंह हर नै रटैं री रहैं कृष्ण संकट कटै री
तेरी सुध लेंगे कृष्ण मुरार, एकली....।