एकांत / मंगलमूर्ति
जब तुम बिलकुल अकेले होते हो
एक बियाबान सुनसान रेगिस्तान में
या जब तुम बिलकुल अकेले होते हो
एक भाग-दौड़ की भीड़ में भी –
जब तुम्हारे चारों ओर या तो एक
अंधेरा भयावह सन्नाटा होता है या फिर
एक शोर-गुल से भरा चिल्लाहट का जंगल
तब भी तुम बिलकुल अकेले नहीं होते
क्योंकि मैं तुम्हारे साथ होता हूँ;
हालांकि तुम मुझे देख नहीं पाते
क्योंकि मैं तुम्हारे अंदर ही रहता हूँ
तुम्हारे दिल की धड़कन बन कर
तुम्हारे मन का अवसाद बनकर
जो एक छंट जाने वाली बदली-भर है
जिससे घिरे हुए तुम इतने अकेले हो जाते हो –
तब मैं ख़ुद तुम्हारा अकेलापन बन जाता हूँ;
तुम्हारी उदासी की चादर खुद ओढ़कर
मैं तुम्हारे अंदर ही कहीं छिप बैठ जाता हूँ
और सोचने लगता हूँ कैसे अलग करूँ तुमको
तुम्हारे इस मनहूस अकेलेपन से,
कैसे बताऊँ तुम्हें कि तुम अकेले नहीं हो
कि मैं भी तुम्हारे अंदर हूँ, तुम्हारे साथ हूँ
मैं तुम्हें अंदर से आवाज़ भी देता हूँ
तुम्हें बताने के लिए कि तुम अकेले नहीं हो
कि मैं तो तुम्हारे अंदर ही, तुम्हारे साथ ही हूँ
जिसे तुम अपना अकेलापन समझ रहे हो
जो अकेलापन तुम्हें अवसाद से घेर रहा है,
वास्तव में यही तो वो घड़ी है, मेरे साथ होने की;
यही तो वह एकांत समय है जब
हम दोनों एक दूसरे से मिल कर, साथ बैठ कर
एक दूसरे की आँखों में आँखें डालकर
एक-दूसरे से अपना सुख-दुख बांट सकते हैं –
लेकिन यह बात तुम्हें मैं कैसे समझाऊँ?
क्योंकि मैं तो तुम्हारे भीतर बैठा हूँ,
और मेरी आवाज़ तुम कहाँ सुन पा रहे हो?