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एकाएक ही / चंद्र रेखा ढडवाल

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सारी पका चुकने पर
वह बनाती है
हाथ ही से
रुपए के आकार जितनी
एक रोटी
दोनों तरफ़् से सेंककर
मुँह से हवा दे-दे ठंडाते
सोचती है कि निभ गया
आज भी धर्म
आँगन में खड़ी हो
आ-आ करती
टुकड़ा-टुकड़ा कर उसे बिखेरते
एड़ियों से एकाएक ही
पंजों पर आ जाती है औरत.