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एकाकी जीवन / संजीव 'शशि'

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बीच डगर में हाथ छुड़ा तुम चले गये,
कितना मुश्किल जीना एकाकी जीवन॥

वरण किया था अग्नि कुण्ड को साक्षी कर।
सोचा था तुम साथ रहोगे जीवन भर।
पूजा था मैंने तुमको भगवान समझ।
भाग्यहीन थी मैं तुम तो निकले पत्थर।
बदला समय भुलाये तुमने सभी वचन।

जिस आँगन में उतरी मेरी डोली थी।
अरमानों की जलती देखी होली थी।
एक-एक करके सबने मुँह मोड़ लिया।
नजरें बदलीं, बदली-बदली बोली थी।
रही देखती टूटे रिश्तों के बंधन।

आयी उस घर जिस घर की मैं जायी थी।
अपने भाई को भी लगी परायी थी।
देख-देख करके जो मुझको जीते थे।
उनको भी अब लगती मैं दुखदायी थी।
हुआ पराया-सा है बाबुल का आँगन।

एकाकी जीवन फूलों का हार नहीं।
ये ऐसी नौका जिसमें पतवार नहीं।
दो कुल की मर्यादा काँधे पर फिर भी।
इस घर, उस घर पर कोई अधिकार नहीं।
बिन माली के कैसे महकेगा उपवन।