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एकादशसर्ग / अम्ब-चरित / सीताराम झा

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पज्झटिति -

गौरिक पद पंकज समाश्रित्य
छल सगर नगर संगीत नृत्य।
कय जनक-नृपति मध्याह्न- कृत्य
मिलि मन्त्रिसहित -हित-जनसुभृत्य॥1॥
कयलनि आगुक करतब विचार
मुनि-गाधिसुतक कथनानुसार।
लिखि पत्र पठौलनि सुमुख दूत
जनिका छल ज्ञात भविष्य भूत॥2॥
द्रुतगति वाजीरथ भय सबार
चललाह अवधपुर चतुर चार।
अहिठाम मुदित मिथिला-नरेश
लगलाह सजाबय नगर देश॥3॥
रानी पुनि आङन घर निपाय
भरि गामक गाइनि कैं बजाय।
पूजल गौरी, गणपति मनाय
कबुलापाती विधियुत चढ़ाय॥4॥
सब जनि मिलि मंगलगीत गाबि
भेली हरषित मन मोद पाबि।
लय पत्र दूत चलि अहोरात्र
पथश्रम गनैत नहिं लेशमात्र॥5॥
अगिलहि दिन में टपि अपन देश
शुभ अवध-अवनि कैलनि प्रवेश।
लखि दृश्य विविध मन मुद लहैत
देखल कलकल सरयू बहैत॥6॥
निरमल जल पूरित अगम धार
रथ सहित नाव चढ़ि उतरि पार।
देखल कांचन-मनि-मय अनूप
चमकैत अयोध्या नगर रूप॥7॥
द्रुतगति चलैत पथ परम पूत
पुर पहुँचि मनहि मन कहल दूत।
जहिरूप विदेहक रम्य गाम
देखी तहि रूपक अहू ठाम॥8॥
उपवन वन वीथी धवल धाम
अनुरूप दुहू पुर छवि ललाम।
सब अन्न मूल फल सरस भोग्य
सासुर सीता देवी क योग्य॥9॥
ई विधि विरंचि पहिनहि विचारि
रचलनि जोड़ी युग पुरुष नारि।
नहिं भाग्य विदेहक कहल जाय
सीतासनि बेटी विनु उपाय॥10॥
पौलनि पुनि रामक सन जमाय
“धरमतमा-घर मूसो कमाय”।
ई-रूप चार करितहि विचार
गेलाह पहुँचि नृपसिंहद्वार॥11॥
छल ठाढ़ ततय जे प्रतीहार
कहलनि तकरा निज समाचार।
सुनि प्रतीहार नृप-निकट गेल
बाजल प्रणाम कय विनत भेल॥12॥
“धर्मावतार! करुणानिधान!
आयल छथि मिथिलेशक प्रधान”।
सुनितहि भूपति मन मुदित भेल
सादर निज निकट बजाय लेल॥13॥
हरषित मन दूत झुकाय माँथ
दय देल पत्र भूपति-क हाथ।
आनन्द समुद्र-तरंग डोलि
लगलाह पढ़य नृप पत्र खोलि॥14॥
“श्रीयुत सुर-मुनिजन-कुमुद-चान!
रघुकुल- सरोजवन-भानुमान!
विख्याल- सुयश गुणगण-विधान!
नानाविध- विरुद्ध- विराजमान॥15॥
खल- वन- दावानल दयागार
नृपमान्य अयोध्यपति उदार।
स्वीकृत हो सविनय वार-वार
मिथिला सौं जनक क नमस्कार॥16॥
अपनेक कुशल सौं कुशल छेम
अछि एतय सुरक्षित सभक नेम।
आगाँ हर्ष क ई समाचार
अपनेक युगल अनुपम कुमार॥17॥
सकुशल श्री कौसिक मुनि क संग
कैलनि निशिचर कैं मारि तंग।
मारीच-आदि खल कैं पछारि
मुनि जनक सकल दुख विघ्न टारि॥18॥
तहि ठाम व्यवस्था सब सुधारि
गौतममुनि- पतनी कैं उधारि।
यश पाबि सकलविधि ताहु ठाम
पुनि सुनि शंकर-धनु-मख क नाम॥19॥
अयला कौसिक मुनि हमर धाम
प्रमुदित मन लछुमन सहित राम।
छल हमर प्रतिज्ञा ले कठोर
सीता क विवाह क हेतु सोर॥20॥
सुनि देव दनुज नर नाग यक्ष
अयलाह हमर हित ओ विपक्ष।
सकला नहिं क्यौं तकरा पुराय
थकला सब जन माथा मुराय॥21॥
तकरा अपनेक कुमार रत्न
लेलनि उठाय कर विना यत्न।
करितहिं पुनि सज्य विभंग चाप
भय गेल हँटल सब हमर ताप॥22॥
पौलनि निश्चित-नियमानुसार
सीताक करग्रहणाधिकार।
पुनि हमरि, सती सीता क छोटि
औरस कन्या छथि एक गोटि॥23॥
शुभ-शील-रूप गुनगन-अगार
हृयबाक योग लछुमनक दार।
तैं यथा शीघ्र ई पत्र पाबि
अपने सबन्धु एहि ठाम आबि॥24॥
विधियुक्त कराय विवाह कर्म
पाली दुहुजन निज वंशधर्म।
अपने हमरा घर पयर धोइ
हम जन समेत कृतकृत होइ॥25॥
मानब हम सब निज धन्य भाग
जानब ताही दिन सफल याग।
थोड़हि सौं जानब अधिक अर्थ
बुधजन कैं विस्तर लिखब व्यर्थ॥26॥
इ बुझि संक्षेपहि लिखल लेख
गप हयत समक्षहि निरवशेष।
त्रुटि छमब हमर नृपवर! सनेह
अपनेक शुभाकांक्षी ‘विदेह”॥27॥
पढ़ितहि पुत्रक शुभ समाचार
हर्षक तरंग उमरल अपार।
तहमध्य मग्न भेलाह भूप
निधि पाबि दीनजन जाहि रूप॥28॥
स्वागत कय दूतक सहित-मान
देलनि बुधजन कैं विविध दान।
रानी-गन कैं लगमे बजाय
पढ़ि पत्र देल सबवैंने सुनाय॥29॥
भेली आनन्द- समुद्र मग्न
सब मानि अपन शुभदिन सुलग्न।
निज इष्ट देव देवी मनाय
देलनि अन धन जन कैं बजाय॥30॥
नृप विज्ञ मन्त्रिमण्डल बजाय
उठि शीघ्र वसिष्ठ क निकट जाय।
पद परसि पत्र देलनि सुनाय
सुनि मुनि नृप कैं कहलनि बुझाय॥31॥
“अवधेश! अहाँ छी भाग्यवान
पौलहुँ सुपुत्र रामक समान।
सम्बन्ध करक थिक तही ठाम
समधी धन गुन हो जाहि ठाम॥32॥
छथि अहाँ सनक जन जनक मात्र
छी जनक सनक पुनि अहाँ पात्र।
छत्रिय-कुल-मानस-सरक हंस
छी दुहू व्यक्ति विख्यात-वंश॥33॥
सम्बन्ध परस्पर करक योग
तैं करी चल क झट समुद्योग।
दशरथ नृप आज्ञा गुरुक पाबि
गुनगन गनपति गौरीक गाबि॥34॥
आमन्त्रण मिथिलेशक सकारि
निज इष्ट मित्र दल कैं हकारि।
मिथिलाक सरल व्यवहार जानि
आडम्बर तजि मन मोद मानि॥35॥
गज अश्व पालकी सुरथ- राजि
चलला सीमित बरियात साजि।
प्रथमहिं पद देखल दहि क छाँछ
भेटल आगाँ पुनि विविध माँछ॥36॥
लय सजल कलश अहिबाति नारि
निरखल करघृतदर्पण कुमारि।
पुस्तक-युत विप्र सवत्स धेनु
श्रुतिधुनि श्रुतिगोचर मधुर वेनु॥37॥
पुनि धोवि वसन धोयल उठाय
सनमुख दक्षिणदिशि बड़द गाय।
वैश्या भूषित-नववसन-टूम
प्रज्वलित अग्नि पुनि विना धूम॥38॥
द्विजकर डाली में भरल फूल
सब सगुन दृश्य शुभ फलक मूल।
पावन मिथिला रज-परस हेतु
लछुमन ओ राम क दरस हेतु॥39॥
दु्रत गति सौं सब हरखैत जाय
घर नेरु क प्रति चरि यथा गाय।
चलइत रवि पच्छिम छितिज गेल
पथ भूमि गगन सम रूप भेल॥40॥
राजाक दहिनि ओ वाम अंग
शोभित रिपुसूदन-भरत संग।
हरषित जन दर्शन कय छवी क
विधुबिम्ब निकट जनु बुध कवी क॥41॥
शोभित वसिष्ठ मुनि गुरु मान
जन इतर तरेगन-सदृश भान।
विश्राम राति पथ में करैत
सरयू गण्डक सुख सौं तरैत॥42॥
जनक क प्रदेश में पद धरैत
निरखल शुभमय दीपक बरैत।
श्रुत छल यादृश मिथिला क नाम
देखल तहु सौं बढ़ि छवि ललाम॥43॥
छलि दुहुदिसि माथ मड़ौत काढ़ि
लय कलस सुवासिनि नारि ठाढ़ि।
सहजहि शोभित सिंचित सुगन्ध
पद पद पथ पर छल सुप्रबन्ध॥44॥
नव नव सब थल कुरसी पलंग
उपकरण सहित दूनू अलंग।
वरियात सभक सनमान हेतु
जल भरल कलश में स्नान हेतु॥45॥
नव बसन विविध परिधान हेतु
मेवा मिसरी जलपान हेतु।
माखन दधि औंटल दूध गाढ़
तरुतरु तर छल हलुआइ ठाढ़॥46॥
घृत में टटका पूरी छनैत
छल सरस विविध व्यंजन बनैत।
मिथिला महीक तृण गुल्म रेनु
जनु भेल कल्पतरु कामधेनु॥47॥
जनिका जहि वस्तु क होय काम
पाबथि तहिखन से ताहि ठाम।
जय जय मिथिलेश क कहय लोक
चलला बढ़ैत विनु रोक टोक॥48॥
थलथल जनकृत स्वागत पबैत
मनमन जनकक गुनगन गबैत।
धयने मन लछुमन सहित राम
अयला मिथिलेशक विशद धाम॥49॥
सुनि समाचार मिथिला महीप
अयला उठि अवधेश क समीप।
पूजन- पूर्वक सविनय सनेह
कयलनि स्वागत सब विधि विदेह॥50॥
सब कैं वासस्थल यथा योग
सबकैं मनवांछित वस्तु भोग।
लहि विविध मधुर फल छीर नीर
कय नित्य-कृत्य सब भेल थीर॥51॥
मिथिलामहीप निज भवन जाय
कहलनि वनिता जन कैं बुझाय।
आरम्भ भेल शुभ अंग कृत्य
मंगल संगीत क संग नृत्य॥52॥
हरषित मानस दरसित उलास
अयला दशरथ राम क निवास।
बुझितहि तातक आगमन राम
कयलनि सानुज सादर प्रणाम॥53॥
करधय सुतकैं उर में लगाय
आनन्द पयोनिधि में समाय।
भेला भूपति मुद में विभोर
शशि उदय निरखि यादृश चकोर॥54॥
सानुज राम क मुख ततय भान
स्वातिक धन लखि चातक समान।
कौसिक वसिष्ठ मिलि सहित प्रेम
भेलाह मुदित बुझि कुशल छेम॥55॥
दशरथ कौसिक कैं लागि गोर
बुझि सकल-समाचार क निचार।
हर्षक भरि आयल नयन नोर
गपसप करितहि भय गेल भोर॥56॥
नहिं फेरल क्यौ दोसर करोट
सुख में होइत अछि राति छोट।
वन्दीगन लागल करय गान
विप्र क वेदक धुनि पड़ल कान॥57॥
शुभ सगुन दृष्ट तहिकाल भेल
प्राची प्रसन्न भय लाल भेल।
उठि कय अवधेश सबन्धु भृत्य
भेला निचिन्त कय प्रात-कृत्य॥58॥

मालिनी छन्द -

अवध नृपति जैयो सर्व सम्पति-शाली
जनकनिकट तैयो हाथकैं मानि खाली।
हुनक विहित पूजा पाबि कै पुष्ट भेला
सकलशुभ व्यवस्था देखि सन्तुष्ट भेला॥59॥

अवधेशक मिथिलागमन-जनकक कृत सनमान।
अम्बचरित में सर्ग ई, सकादश अवसान॥