एकान्त / रूप रूप प्रतिरूप / सुमन सूरो
गल-गुदुर दुनियाँ सें गेलोॅ छोॅ दूर?
छोटोॅ-छोटोॅ पहड़ी केॅ झाँपी केॅ, जंगल छै हरा कचोर
जेठोॅ के अनचोंके झकसी में, नाही केॅ भुटकुरलोॅ मोर,
भीजी केॅ रसें-रसें डोलै छै पात
भरियैलोॅ चालोॅ सें चलै छै बात
जंगली फूलोॅ सें निकली केॅ
टहलै छै दसगर्दा गन्ध
खानी पर खानी छै पीरोॅ खजूर!
गढ़िया नील सरंङोॅ के आँखी में छलकै छै नेह
अजगुत शान्ति ने भरै छै, मनोॅ में प्रीति-सनेह
नद्दी के सोतोॅ में बही छै फूल
झुकलोॅ छै काता में कहू समूल
सुखलोॅ बालू पर बैठी केॅ सुस्ताय छै भेंड़ा के झुन्ड
पाँती में खाढ़ोॅ छै कारोॅ बबूर!
एक बेर भाँसै छै, कोन-कोन जन्मोॅ के संचलोॅ तेख
जरियो नी रही छै, शोधराँ धारोॅ में ईरा के लेख
मनोॅ में भरै छै अनचिन आनन्द
सूना अकाशोॅ में उमड़ै छै छन्द
छन्है में सबकुछ बिसारी केॅ, बही छै जिनगी के फूल
कै बेर सूदोॅ के साथोॅ में,
पाबै छै आदमी ने जन्मोॅ के मूर
एक बेर देखोॅ तेॅ गल-गुदुर दुनियाँ सें हँटी केॅ दूर!