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एका अपने देश का / संतलाल करुण

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भारत तेरा रूप सलोना, यहाँ-वहाँ सब माटी सोना।

कहीं पर्वत-घाटी, जंगल, कहीं झरना-झील, समुन्दर
कहीं गाँव-नगर, घर-आँगन, कहीं खेत-नदी, तट-बंजर
कश्मीर से कन्याकुमारी, कामरूप से कच्छ की खाड़ी
तूने जितने पाँव पसारे, एक नूर का बीज है बोना।

इस डाल मणिपुरी बोले, उस डाल मराठी डोले
इस पेड़ पे है लद्दाखी, उस पेड़ पे भिल्लीभिलोडी
कन्नड़-कोयल, असमी-तोता, उर्दू–बुलबुल, उड़िया-मैना
एक बाग के सब हैं पंछी, सब से चहके कोना-कोना।

तमिल खिली है सुन्दर-सी, खिली है मिजो सुघड़-सी
मलयालम कैसी भाती, निकोबारी रंग दिखाती
तेलुगू-गुलाब, गारो-गेंदा, कोंकणी-कमल, आ’ओ-चम्पा
रंग-सुगंध हैं अलग सभी के, सब की माला एक पिरोना।

नेपाली है बायाँ कंधा, दायाँ कंधा पंजाबी
बंगाली बाईं भुजा है, दाईं है भुजा गुजराती
कश्मीरी-आँख, डोगरी-नाक, सिंधी-होठ, हिन्दी-ज़बान
अंग-अंग के रूप अलग हैं, सब में एक ही प्राण सँजोना