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एक अजीब तरह का पागलपन / समझदार किसिम के लोग / लालित्य ललित

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पानी नहीं बरसा
जनता पगला गयी
बिजली महंगी हुई
जनता पगला गयी
फिल्म पिट गयी
जनता पगला गयी
नारे लगाये / बसें जलायीं
माँग मनवाने पर अड़ गए
लट्ठ पड़े, आंसू आएं
जनता पगला गयी
आम जनता वहीं की वहीं
नेताजी को कोई फरक नहीं पड़ता
या कभी सुना है
कि फरक पड़ा है
अरे ! वो मलीहाबादी आम आ गए
अल्फांसो के लिए भी कह दो
मंत्री जी ने अपने पी.ए. से कहा
आदेश पारित हुआ
यहां कोई आवाज नहीं जाती
कमरा साउंड प्रूफ है
आम जनता वही है
सड़क पर
पैदल, पत्थर तोड़ती हुयी
जिसे दो वक्त रोटी भी नहीं
वो पगलाएगी नहीं तो क्या करेंगी
पगलाए रखती है पड़ोस की
छमिया...
गली के लौंडों को
एक अजीब-से माहौल में
जीने के आदी हो गए हैं हम
छलावा, छमिया, मजदूरी
जी-हजूरी
किसी की गुलामी
नहीं तो क्या करें ?
पगलाया हुआ हर आदमी
नीचे से ऊपर तक
जो नहीं पगलाया
वो संत है
पर आज सच्चा संत
ढूंढ़ने से भी कहां मिलता है
आपको मिले तो
बताना मुझे भी
मैं भी पूछूंगा भाई से
कि क्या मुक्ति मिली है आपको
सांसारिक बंधनों से
जो इतने चेलों और चेलियों से
घिरे रहते हो !
विदेशों के चक्कर
प्रवचन
पत्रिका के चंदे, नेट संस्करण
यह महत्वकांक्षा नहीं तो
और क्या है !!!
अजब तमाशा है यह
इसको कोई नहीं बदल सकता
ना मैं और ना ही आप