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एक अतुकांत सानेट / भारत यायावर

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जीवन को समझौते की दलदल में रखकर

जीने से इन्कार रहा है । इससे क्योंकर

दुखी हुए हैं मेरे भाई! आँच हृदय की

धधक रही है । नहीं बुझेगी तब तक, जब तक

लोगों को सुख की चादर में सोया पाकर

उनके सुख से तृप्त नहीं हो जाऊँ जी भर ।

रात-रात भर, जाग-जाग कर सपनों में मैं

भारत की तस्वीर बनाता हूँ जिसमें वह

सैनिक है । लड़ने खातिर तैयार हो रहा ।

समझ रहा है चीज़ों को उनकी हालत में ।

गुज़र रहा है लोगों की पीड़ा से होता ।

ऎसे में कैसे बोलो समझौता कर लूँ

उन्हीं ताकतों से जिनकी सूरत से घृणा

भभक रही है । भभक रही है । भभक रही है ।


(रचनाकाल : 1982)