एक अदना स्टेशन / महेश चंद्र द्विवेदी
मैं चिरक्लांत, अनिद्राविक्षिप्त,
अदना-सा एक रेलवे स्टेशन हूं ।
लोकल, मेल और माल
सभी गाड़ियां यहां आतीं हैं,
कुछ रुकतीं हैं, कुछ धड़धड़ाती चली जातीं हैं ।
पर मुझे झकझोरने में कोई नहीं चूकती है ।
मैं शांति को तरसता हूं, निद्रा का प्यासा हूं ।
निर्मम हो मुझे निशिदिन जगातीं हैं रेलगाड़ियां ।
मैं एक अदना सा स्टेशन हूं, स्थिर हूं,
ये अत्यंत वेगवान हैं;
मैं चिरस्वरविहीन हूं, ये तीक्ष्णस्वरवान हैं ।
मैं प्रतीक्षा का प्रतीक,
ये मंज़िल तक पहुंचातीं हैं;
मेरे अस्तित्व से अनभिग्य मेरे वक्ष पर गुज़र जातीं हैं ।
दूरदृष्टि है इनकी, निकट को नहीं देख पातीं हैं,
बिन अपराधबोध मुझे पल पल सतातीं हैं रेलगाड़ियां ।
मूक होते हुए भी कोलाहलपूर्ण,
निर्जीव होते हुए भी कम्पायमान,
नेत्रहीन होते हुए भी प्रकाशमान,
अचर होते हुए भी गतिमान,
क्षुद्र स्टेशन के प्रति निर्लिप्त,
निर्विकार,
ना मुझसे कोई मोह, ना कोई प्यार,
निस्प्रह हो मुझको सपनों से उठातीं हैं रेलगाड़ियां.
पर किसी तुच्छ की ओर देखता
कौन सा महान है?
किसी बड़े को होता कब क्षुद्र की पीड़ा का भान है?
क्या धरती पर चलता आदमी चींटी को बचाता है?
हर भयावह तूफ़ान बस कमज़ोर वृक्ष ही गिराता है.
एक गज को बचाने भगवान स्वयं दौड़कर आये,
क्षुद्र जीवों के समूल नाश को रोकने कभी धाये?
याद रखो अगर तुम एक
अबल, अदना से स्टेशन बने रहे,
तुम्हें प्रतिदिन प्रतिपल शक्तिशाली रेलगाड़ियां जगायेंगी;
नारियां जब तक अपढ़, असहाय, अबला रहेंगी,
घरों से दुत्कारी, तंदूरों में जलाई जांयेंगी.
राष्ट्र जो जाति पांति में बंटे हैं, निर्बल और निर्धन हैं,
वे सदैव चंगेज़, नादिरशाह और गज़नवी से लुटते रहेंगे.
'वसुंधरा वीरभोग्या है'- शक्ति की पूजक है,
यहां शक्तिशाली ही पुजे हैं, शक्तिमान ही पुजेंगे.