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एक अधूरी कविता सुनते हुए / उपेन्द्र कुमार

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एक नदी
जिसे जाना था समुद्र तक
अचानक ठहर गई
और बैठ मेरे सामने
सुनाने लगी कविता

दूर बजते
सितार, वायलिन या बाँसुरी
अथवा शाम घर लौटते बैलों की
घंटियों के स्वर-सा
मधुर/कुछ-कुछ रुकता
धीरे-धीरे पास आता-सा
उस कुँआरी नदी की कुँआरी कविता के शब्द
फैलने लगे थे

नदी में नहाते लोग
नदी किनारे बैठ
मेरे साथ
सुनने लगे नदी को
नदी के उस गीत को
जिसे सुनना था नदी ने समुद्र को
जिसमें थे
कितने ही अधूरे सपने
अधूरी इच्छाएँ/और अधूरे चित्र
जो तटों ने, नावों ने, पक्षियों ने
बादलों ने, बरसती बूँदों ने
उसके जल में प्रवाहित दीपों और पुष्पों ने
उस तेज भागती नदी के मन में जगाइ थीं
उसके वक्ष पर उकेरे थे
और वही तेज भागती नदी
बैठी थी मेरे सामने
सुनाती हुई कविता
कितनी-कितनी अधूरी चीजों की

मैं मंत्रकीलित / भावविभोर
आँखों में आँखें डाले
आत्मविस्मृत, मुग्ध, सुन रहा था
एक अधूरी कविता

जो धीरे-धीरे
मेरे अभ्यन्तर को पूरी तरह भरती
समाती प्राणों की रिक्तता में
बदलती/नफरत को
निश्छल निरुद्देश्य-रागात्मकता।
पाशविकता को
संगीतात्मक सृजनशीलता को
बनती जा रही थी सम्पूर्णता की नदी

एक नदी
जो बैठी नहीं थी मेरे सामने
सुनाती अधूरी कविता
वरन् वह रही थी मेरे अन्दर
समस्त अधूरेपन को
बहाकर ले जाती हुई