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एक अनबुझी-सी चाह मेरे साथ रही है / गुलाब खंडेलवाल

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एक अनबुझी-सी चाह मेरे साथ रही है
हरदम तेरी निगाह मेरे साथ रही है

मंज़िल हज़ार बार बगल से निकल गयी
जाने ये कैसी राह मेरे साथ रही है!

बिजली कभी-कभी जो चमक ही गयी तो क्या!
ग़म की घटा सियाह मेरे साथ रही है

डरते जो आँधियों से वे माँझी थे और ही
लिपटी किसी की बाँह मेरे साथ रही है

यों तो हरेक अदा में तेरी हैं खिले गुलाब
एक बेबसी की आह मेरे साथ रही है