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एक अवलंब तुम्हीं, प्रभु ! मेरे / गुलाब खंडेलवाल
Kavita Kosh से
एक अवलंब तुम्हीं, प्रभु ! मेरे
बाकी सभी मील के पत्थर, छूटें साँझ-सवेरे
मैंने निशि-दिन जड़ प्रवृतिवश
लिया क्षणिक सुख-भोगों में रस
अब सुध हुई, काल डोरे कस
लगा रहा जब फेरे
हे अव्यक्त, अनाम, अनिर्वच !
सोये भी तुम सृष्टि-नियम रच
पर यदि मेरी श्रद्धा हो सच
नींद रहे क्यों घेरे !
नभ की और टकटकी बाँधे
मैं बैठा हूँ पथ पर आधे
रहो मौनव्रत भी यदि साधे
पल तो रहो अँधेरे
एक अवलंब तुम्हीं, प्रभु ! मेरे
बाकी सभी मील के पत्थर, छूटें साँझ-सवेरे