एक अश्किया / तिथि दानी ढोबले
एक अश्किया<ref>क्रूर</ref>, ख़ब्ती और उन्मादी आदमी
अभी-अभी गया है सघन काली नींद के गर्त में
गर्त से ही नर्क का रास्ता खोज लिया है उसने
उसके उगले हुए शब्दों का लावा
नींद में भी जला रहा है उसकी जीभ
जहां-तहां झड़ती राख हो गयी है बेतरह ज़हरीली
दुनिया के तमाम आततायियों ने आच्छादित कर ली है उसकी शक्ल
उसके हृदय का दाहगृह
आक्रामक और ख़ूनी इरादों की बिजली से बना है,
जल रहे हैं जहां रफ़्ता- रफ़्ता
उसे अपना क़रीबी और आत्मीय मानने वालों के शव।
जहां भी पड़ीं हैं उसकी शोला निगाहें
वहां दूषित हो गयी है वातावरण की पवित्रता
हवा बन गयी है नाइड्रोजन डाइऑक्साइड
और पीली पड़ रही है उस स्त्री के सुनहले खेतों की हरियाली
जिसने सदा अपनी दुआओं में मांगी है
इस अश्किया की ख़ातिर सुकून की खाट
और खुद के लिए प्रेम की एक अविचलित सुगंध
और परोसे हैं देव लौकिक दृष्टांत उसकी थाली में।
ये फ़ाज़िल, जज़्बाती और स्नेहिल, यानि इंसान बने
इन्हीं अभिलाषाओं के फूल सजाएं हैं
उस स्त्री ने अपने ख़्वाबों के उड़नख़टोले में,
और दिनचर्या के काम करते हुए,
ले रही है, एक भरपूर भ्रमित नींद।