एक आदमी दो पहाड़ों को कुहनियों से ठेलता / शमशेर बहादुर सिंह

एक आदमी दो पहाड़ों को कोहनियों से ठेलता
पूरब से पच्छिम को एक कदम से नापता
बढ़ रहा है

कितनी ऊंची घासें चांद-तारों को छूने-छूने को हैं
जिनसे घुटनों को निकालता वह बढ़ रहा है
अपनी शाम को सुबह से मिलाता हुआ

फिर क्यों
दो बादलों के तार
उसे महज उलझा रहे हैं?

(1956 में रचित,'कुछ कवितायें' कविता-संग्रह से )

इस पृष्ठ को बेहतर बनाने में मदद करें!

Keep track of this page and all changes to it.