एक उदास दिन की चिट्ठी / विनोद भारद्वाज
अरे, उन्नीस फ़रवरी तो तुम्हारा शादी का दिन था
बर्तन माँजते हुए तुमने एक सुबह चहककर बताया था
तुमने कहा — आपको भी आना है
मेरी क़सम, ज़रूर आना है
क़सम नहीं खाते, प्यारी बच्ची ! —
मैंने कहा और एक उदास कविता को पढ़ता रहा ।
मैं चाहती हूँ दुल्हन बनूँ तो आप ज़रूर देखिएगा ।
अच्छा, ठीक शाम ६ बजे वाट्सएप पर सिर्फ़ दो मिनट के लिए
मुझे देखिएगा ।
लाइव हो जाऊँगी मैं ।
ठीक है,
तुमने तो आज सफ़ाई बहुत मेहनत से की है
आख़िरी दिन है काम का ।
कार्ड देने तो आऊँगी
कार्ड छपे पर रखे रह गए ।
हल्दी की रस्म में तुम्हारे पिता नाराज़ होकर घर आए ।
अचानक कई नई माँगें उन्हें सुनने को मिली थीं ।
एक दिन तुमने कहा था न —
यह रिश्ता टूट ही जाए तो अच्छा है
लड़का तुमसे फ़ोन पर बात भी नहीं करता है
तुम उससे ज़्यादा स्मार्ट हो
स्मार्ट तो तुम हो
पर उदास होगी
शाम ६ बजे इस उम्र में भी मुझे रोना आ जाए
तो वीडियो बन्द कर देना
अपने पाले हरे तोते को जाकर प्यार करना
ज्योत्सना !