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एक उनींदी अलस दोपहर के सफे से / आरती तिवारी

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चौंक के खुल जाने वाली नींद में साँझ की ओर
धीरे से क़दम बढ़ाती दोपहर में
तुम्हारी यादों से सराबोर
भीगे मन को दिलासा देकर
मैं तकिये को भींच लेती हूँ

मेरी आब का मोती
जो बाँध दिया था
तुम्हारे विश्वाश की पोटली में
पीला पड़ गया है
खो कर अपनी आब

मैं इकठ्ठा करती हूँ
कतरा कतरा झाग
उम्मीदों के डिटर्जेंट का
कि धोकर चमका लूँ
फिर से एक बार

पर ये क्या
तुम उड़ेलते जाते हो
शंकाओ का पानी
हमारे मिलन की संभावनाओं को नकार कर

और बैठ जाता है झाग

आखिर इस तरह
कब तक बदलोगे
कामनाओं के लिबास
पकड़ना तो होगा ही एक सिरा
मन की मज़बूती से

सुनो प्रिय
हो न जाये इतनी देर
हम बूझ न पायें रास्ते
खो जाएँ भूलभुलैया में

इससे पहले कि
डर और आशंकाओं का कुहासा
दबोच ले हमें

करो उपचार
मेरे घायल स्वप्न का
रख दो मेरे अधरों पर
ज्योत्स्ना की शीतल नमी
समय के कागज़ पर
लिख दो हमारी मोहब्बत की दास्ताँ

इस तारों भरे आकाश के नीचे
हर शै में अपने होने का अहद कर
ले लो मुझे अपने आगोश में