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एक एबसर्ड कविता / वीरेन्द्र कुमार जैन
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वह बात वहीं रही।
तुम्हारा आना अनिश्चित था।
सब कुछ किया नहीं जाता,
होता रहता है।
तो फिर मैं क्यों रुकूँ, सोचूँ
या इन्तज़ार करूँ?
हाँ, हाँ चाहे आओ या जाओ,
इसमें पूछने की क्या बात है!
मैं यहाँ रहूँ या और कहीं,
मिलूँ या न मिलूँ,
क्या फ़र्क़ पड़ता है!
अच्छा तो तुम आए भी,
और चले भी गए,
और मैं यहाँ मौज़ूद था,
और तुम मुझसे मिले भी!...
...हो सकता है, मुझे नहीं मालूम!
तुम्हारा कहीं और होना
अब अहसास में नहीं आता :
जवाब कौन दे
और किसे दे?
रचनाकाल : 20 फ़रवरी 1975, मीठीबाई कॉलेज