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एक औरत की दैनिकी / प्रमोद धिताल / सरिता तिवारी

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सबेरे उठकर
खोलना है घर का दरवाज़ा
साफ़ करना है कूड़ा-करकट और धूल
पोंछना है फ़र्श
चमकती हुई फ़र्श देखकर
मुस्कराना है गृहिणी–मुस्कान
सँजोना है बैठक
सँवारना है शयनकक्ष
जैसेकि जीतना है ओलम्पिक का स्वर्ण पदक
दौड़ना है रसोर्इघर के भूगोल के ऊपर सुबह भर

चाय चमेना
रसोई भोजन
टिफिन पानी
ख़त्म होने के बाद यह सब आपाधापी
जैसेकि कहीं अनन्त की उड़ान भरने की हों तैयारी
निकलना है जीने के उपक्रम की
दैनिक धावन मार्ग में

मानों
इन्तज़ार करके बैठे हैं रास्ते के अग़ल-बग़ल
प्रकृति की अशेष गीत गानेवाली चिडि़याँ
या लालायित हैं आँखों से टकराने के लिए
हवा के लय में नृत्य करने वाली तितलियाँ
लेते हुए रास्ते की परि चित गन्ध
छिछोलते हुए लोगों की भीड़
और महसूस करते हुए हृदय में
चलते रहने का आनन्द
पहुँचना है कहीं, किसी नियमित गन्तव्य में
और रखना है झोला

लौटना है तेज रफ़्तार में
ठहरना है आँगन के पृथ्वी पर
और खोलना है दरवाज़ा

मेरे इन्तज़ार में बैठे हुए हैं घर में
अनगिनत बेफुर्सदी
कैलेण्ड़र जैसा टँगा हुआ है
सुबह शाम की निजी कार्यतालिका
और उसी की महीन कोठरियों में
विभक्त होना है प्रत्येक दिन स्वयं को तोड़कर

सिर्फ़ मैं जानती हूँ
मेरे घर की दिवारों की लिपि
और केवल मुझे ही है मालुम
कि किस ओर है
मेरे पसीने की स्याही से लिखा हुआ
गुमनाम किताबख़ाना

जब मस्त सो जाती है रात
थकान से पस्त हो चुकी जान को
सौंपकर सनातन बिस्तर के हवाले
डूबती-उतरती हूँ अवचेतन
लार और वीर्य के अवचेतन समुद्र मे
और किनारे में निकलकर
दाेेेहराती हूँ मन ही मन
गन्दगी और पानी की
दुःख और निर्वाण की
यात्रा और गन्तव्य की
जीवन-भर की अकथ्य कथा

और याद करती हूँ सोने से पहले हरेक रात
गृहस्थी की अज्ञात प्रोफ़ाइल में सिकुड़ कर
बड़ी घुटन के साथ साँस ले रही
कदाचित पूर्ण न हो पायी कविता को।