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एक और प्रार्थना (कविता) / प्रकाश मनु

शक्तिशाली से लड़कर जीतूं
मैं नहीं चाहता
मैं जानता हूं, मैं जीत नहीं सकता
दुःशासन के एक अंगूठे से भी ।

मैं तो सिर्फ इतना चाहता हूं
कि शक्तिशाली से हारूं तो उसकी जीत के भीतर
कहीं एक छोटा सा महीन कील जरूर चुभा रह जाए
जो उसे रह-रहकर थोड़ा कुरेदता रहे
उसके पत्थर दिल के भीतर एक महीन बाल बराबर
बाल जरूर रह जाए
जो दुनिया की नजरों से छिपा
दिन और रात लगातार बढ़ता जाए....

और बढ़ते-बढ़ते वह इतना बढ़ जाए
कि कमजोर को जब पीट रहा हो शक्तिशाली
तो पीटते-पीटते
सबसे पहले उसे ही रोना आए।
वह पीटे और बुक्का फाड़कर रोए....
रोए और सबके देखते-देखते जोकर में बदल जाए।

शक्तिशाली को पीटूं, मैं नहीं चाहता
मैं पीट भी नहीं सकता उस नीच नराधम को
मैं तो बस यही चाहता हूं कि
मुझे पीट-पीटकर बेदम हुआ जब सोफे पर
गिरे यमदूत मुँह से फेन गिराता
लस्तम-पस्तम गिरे शाक्तिशाली अंगुलिमाल जब आंधी में
उखड़े हुए पेड़ की तरह
तो उसके हाथ के अंगूठे के
दर्द की एक बारीक सी सर्प-लहर छूट जाए।
लहर जो पतली सी हो बाल बराबर
मगर उससे हो शक्तिशाली
जो खुद प्रथम पुरूष बना बैठा है
टांगे फैलाए सिंहासन पर।

डस मद्धिम सी लहर से सिंहासनाधीश कितना ही अकुलाए
म्गर वह लहर दुनिया भर की दवा-दारू के बावजूद
उसी में रह जाए।
(और साल मं एकाध दफा विषभरी घायल सर्पिणी-सी चमक जाए।)
इतनी...
बस, इतनी सी प्रार्थना।

और अंत में ...
मुझे पीट-पीटकर भेजे में भुस भर देने के बाद जब शक्तिशाली
कभी भूल-भटके लौटे
खुद में
तो एक सवाल गोल-गोल चक्कर खाते
मच्छर की तरह
भिन-भिन करता
उसके सामने जरूर आए
कि उसने किसको पीटा था....
पीटा भी था या....?