एक और मिली हुई कविता / विपिनकुमार अग्रवाल
यह रोशनी क्यों चमक रही
ये आवाज़ें क्यों आ रहीं
लगता है हमारे गाँव में
नेता आ रहे, आ रहे
ये कौन हैं
पूछो मत
कहाँ से आए
पता नहीं
कहाँ जा रहे
वे ही जानें
कैसे हैं
सफ़ेद कपड़े पहने
मूँछें लगा होठों को ताने हुए
बढ़े आ रहे
बढ़े आ रहे
बदमाश पुरोहित से कह दो मंदिर में शंख बजाए
बेचारे मास्टर से कह दो अपना पाठ पढ़ाए
बीमार होरी से कह दो अपना हल चलाए
भूखे कवि से कह दो अपना गीत गाए
मन्दिर में बिना रूके
पाठशाला में बिना मुड़े
खेतों को रौंदते हुए
सब जानते हुए
इधर आ रहे
इधर आ रहे
अब और इन्हें क्या चाहिए
अब हमारे पास बचा क्या है
अब हम कितने कम रह गए हैं
देखो तो पास कितना आ गए
अरे, यह सामने लाल आँखों वाले
पहले पुरोहित थे
ज़रा पीछे रंगे होठों वाले
मुझे मदरसे में पढ़ाते थे
दाहिने देखो, ऎंठा-सा चलता हुआ
पहले खेत का सुक्खू है
इन सबको क्या हुआ, क्या हुआ
कुछ नहीं
ये हमारी योजनाओं के फल हैं
पिछले वर्ष हमने संसार में
सबसे ज़्यादा नेता पैदा किए
इन्हें देखने के लिए
दूर-दूर से लोग आ रहे
फिर तुम क्यों डर रहे
डर रहे
अरे यह क्या
तुम भी नेता में
शनै: शनै:
बदल रहे
बदल रहे ।