एक और विकल्प / प्रताप सहगल
तुम्हें हरामखोर कहूं
या हरामज़ादा
अब तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ता
गाली से पैदा होने वाली
तकलीफ का अहसास भी
तुममें मर चुका है
गुज़र गए हैं तैंतीस साल
और हम गाली दे-देकर थक गए हैं.
हमने देखा है
जब-जब भी हमने तुम्हें गाली दी
वह तुम्हारे हाथों के साथ चिपक गई
और यकायक वे गालियाँ
दो कबूतरों में तब्दील हो गईं
एक कबूतर की गर्दन मरोड़कर
तुमने फेंक दिया अलाव के ऊपर रखी भट्टी में
और दूसरे को मनचाही दिशा में
ऊंचा उछाल दिया.
मरे हुए कबूतर का चश्मदीद गवाह
अब एक आतंक का शिकार था.
आतंक सिर्फ कबूतर को बाहर से ही
नहीं/अन्दर से भी जकड़ने लगा
आतंक बड़ा होने लगा
और अचानक एक रात
आतंक ने आक्टोपस का रूप ले लिया.
अब कबूतर
गुटर गूं नहीं करता
बल्कि लाइन में लगकर
दाना चुगता है
लम्बी उड़ान नहीं लेता
बस ज़रा से पँख फटकार लेता है
वह ज्योंही आंख खोलता है
उसे अलाव पर भुनता हुआ
दूसरा कबूतर दिख जाता है
वह चुपके से आंखें फिर
मूंद लेता है
कोई फर्क नहीं पड़ता अब
कि कबूतर आज़ाद है
पर अलाव तो अभी भी गर्म है.
और मैं चीख कर फिर
राजपथ और जनपथ के चौराहे के
बीच गाली देने लगता हूं
पर तुममें वह ताकत भी नहीं रही
जो गाली की भाषा समझ सके
तो आओ
क्यों न हम कोई और भाषा
ईजाद करें
क्यों न मान लें
कि भाषा सिर्फ शब्द नहीं होती
न कविता/न गाली
हथियार भी एक भाषा हो सकती है.