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एक और / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
एक और टूटी दहलीज
बूढ़े घर की ।
थके-थके पाँवों को और मिले
सर्पीली राह के छोर
एक घुटन कुहरे-सी क्या फैली
टूट गई गीतों की डोर
बिजली-सी कौन्ध गई खीज
यायावर की ।
एक उमर आँखों में बीत गई
चुने नहीं प्रतिमा ने फूल
परिचय कर मौसमी हवाओं से
पर्वत के शीश चढ़ी धूल
धुँधलाई, हर उजली चीज़
आडम्बर की ।