एक कर्मचारी की डायरी-2 / रणविजय सिंह सत्यकेतु
दफ़्तर मेरे घर तक पहुँच गया है
उन्होंने दफ़्तर मेरे घर में घुसा दिया है
दफ़्तर की छोटी से छोटी बात
दूर करती है मुझे मेरे घर से
बात-बात पर बुला लिया जाता है दफ़्तर
टाइम-बे-टाइम
डिवोशन, लेबर, लॉयल्टी, नमक...
वगैरह की दी जाती है दुहाई
बल्कि होती है वह अपने तईं मुकम्मल धमकी
कि ऐसा नहीं तो बाहर का दरवाज़ा खुला है
कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं
पूरा बाज़ार पड़ा है
कभी-कभी नहीं
यह रोज़ का जुमला है
उफ़्फ़...
जहर उगलते उनके मीठे बोल
किस कदर खोलते हैं
नाजुक चेहरे की पोल
जबकि उनका घर दफ़्तर तक पहुँच गया है
उन्होंने अपने घर को दफ़्तर में घुसा दिया है
घर की छोटी से छोटी बात
ग़ैर-हाज़िर करती है उन्हें दफ़्तर से
कहते हैं
हर तरफ़ रखनी पड़ती है नज़र
हर कहीं उठाना पड़ता है बोझ
हमारी आँखों में प्रश्न उबलता देख
वो कहते हैं
कि हम कर्मचारी नहीं प्रोडक्ट सेलर हैं
बाज़ार की ऊँच-नीच के साधक
बाज़ार को साधना ही है हमारा ध्येय
और बाज़ार
काम के घंटों का कायल नहीं
सतर्क और लगातार काम की माँग करता है ।
संवेदना, मानवता हैं
कमज़ोरों और भावुकों के टोटके
जो देते हैं मक्कारी को बढ़ावा
जो सिर्फ माँगते हैं हक़
सुविधाओं का चढ़ावा
वे जानते हैं हमारे घरों की ज़रूरतें
जो करती हैं हमें ख़ासा विवश
इसलिए वो धमकाते हैं
कि बाज़ार के बिना
न शब्द चलता है, न शख़्स !