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एक कविता-एक वजूद / अर्चना कुमारी

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मेरी हर कविता
मेरा एक किरदार होती है
एक मुकम्मल शख्सियत
जब चोट खाती है
डाली से टूट जाती है
सूखे पत्तों की तरह
पाँव तले दबने से
निकलती है आवाज रुखी सी
नमी का कोई लफ्ज नहीं होता
अहसास की कोई किताब नहीं होती
वही थी मैं
जो तुम नहीं समझे
बरस रही है हँसी
रात की बाँहों से
सवाल नाच रहे हैं
आँगन में घूँघरु बाँधकर
कि मैं अक्सरहाँ कुछ और थी
तुम कुछ और समझते रहे
अब तलाशियाँ खत्म होती हैं पते की
मैं की
कि मेरे बाद कोई मुझसा मिले तो पूछना
आग से दामन जलाकर
कौन फूँकता है फफोले किसी और के!!
मेरा किरदार तब भी सजदा था
अब भी इबादत है!!