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एक कविता के लिए / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

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एक कविता लिखी जाएगी।
उसके लिए ही आसमान
आग की नीली शिखा की तरह
क्रोध में बिफर रहा समन्दर
अपने डेने फड़फड़ा रहा है तेज़ झंझावात,
धुएँ-जैसी खुलती हैं बादलों की पिंगल जटाएँ
बिजली की कड़क
काँपनरे लगता है जंगल
सिर धुन रही पेड़ों की फुनगियाँ
गिरने के डर से सिर कूट मर रही हैं
बार-बार कड़कती है बिजली
और उसकी चौंध में
... एकबारगी झिलमिला उठता है सबकुछ
ख़ून के सुर्ख़ आईने में देख रहा अपना चेहरा
राख से पुता समन्दर।
एक कविता लिखी जाती है, इसीलिए।

एक कविता लिखी जाएगी, इसीलिए
पता नहीं कौन हैं जो दीवारों पर
किसी अनागत दिन के फ़तवे चिपका जाते हैं?
मृत्यु के आतंक को
फाँसी के फनदे से लटकाकर
जुलूस आगे बढ़ जाता है,

गान उसके गूँजते आसमान पर और हवा में
उसके गर्जन में, उसके नखदर्पण पर
अंकित होती है एक नई धरती-
इसके अकूत सुख और असीम प्यार के लिए,
लिखी जाती है-एक कविता।