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एक कविता में प्रेम / विमलेश शर्मा

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मैंने पूछा
योंही रहोगे ना सदा!
और तुमने सौगात में दिए थे
कुछ शब्द
ऋतुओं के ब्याज से कि
मैं
ना शिशिर हूँ
ना हेमन्त
वसन्त, ग्रीष्म
ना ही वर्षा और शरद!
मैं ऋतु नहीं हूँ
पर उसका उल्लास सहेज
सदा खिलता रहूँगा तुम्हारे लिए
मैं ऋतव्य* मधु नहीं हूँ
जो झरता है
कुछ विशेष दिनों की पोटली से
मैं तुम्हारा ह्रदय हूँ
जीवन हूँ
जो धड़कता है सांसों की ताल पर
कल-कल
बेकल!
मैं वह आकाश हूँ
जो थामे रखता है
धरा को
तमाम मौसमों में

सुनो!
देखो यहाँ!
मैं तुम हूँ!
तुम से हूँ
और बना रहूँगा सदा
तुम्हीं में
तुम-सा होकर!