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एक कविता सिल्विया के नाम / रमेश क्षितिज / राजकुमार श्रेष्ठ

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क्यों चली हवा अचानक और उड़ा ले गई घोंसला ?
क्यों बरसे ओले और गिराया गुलाब के पंखुड़ियों को जमीं पर ?
क्यों फटा बादल और तोड़ी गरीबों की छत ?
जीवन में कितने अर्थपूर्ण हैं
किसी आदमी का अभाव या उपस्थिति !

अरसों से
तुम्हारी राह देख रहे रास्तो पर न चलकर गई तुम

इक पुराने किताब के सफ़हे यूँ हीं पलट रहा था साँझ में
सूख चुका फूल देखकर
सिल्विया, तुम्हारी यादें ताजा हो खिल उठीं आज !!

जीवन तो कैसे भी हो गुज़रता ही है
किसी के प्रेम में जैसे अभाव और वियोग में भी
कितनी ही सर्दियाँ आईं
यादों की नरम धूप तापकर बैठा रहा
और कितनी ही चैत की आँधियों में
सूखे पत्ते की तरह उड़ता रहा मन

झड़ी फटे दिन – बर्खान्त में सुखाया
तुमने तोहफ़े में भेँट की
विश्वप्रसिद्ध व्यक्तियों की आत्मकथाओं से भरी पुस्तकें
और जन्मदिन के तोहफ़े में भेँट किए कपड़े

सावन के तालाब-सा देखता हूँ आँसुओ से भरी तुम्हारी आँखें
और वह दिन याद करता हूँ
पहाड़ी का अकेला पेड़ देखता हूँ
और दूर कहीं प्रतीक्षारत तुम खड़ी हो, सोचता हूँ
जब देखता हूँ यात्रा में कहीं समुद्र
तुम्हारे विश्वास और तुम्हारे होने का आभास सोचता हूँ

छूटकर भी छूट ही न सका मैं
हवाओं के झोंकों को तुम्हारा निश्वास समझता हूँ

तुम्हारी चंचलता और ठहाकों को सुबह की धूप समझता हूँ
जीवन में इतने बड़े आघात सहकर भी

दुःख हुआ तक कह न सका मैं
सीने के भीतर निरन्तर जाते रहे भूकम्प के झटके फिर भी
मैं मौन, शान्त, एकदम ही निस्पृह-सा होता रहा

अहो ! करोंड़ों लोगों की भीड़ में
किसी को पता ही नहीं चलेगी इक अद्भुत्त कहानी !

फुर्सत के वक़्त किवाड़ बन्द कर अकेले कभी-कभी
कल्पना करता हूँ, फिर दुहुराता हूँ समय का हिसाब-किताब

क्या नहीं मिलता, क्या नहीं मिलता
ऐसे करता तो अच्छा होता
वैसे बोलता तो अच्छा होता, कहता हूँ

वैसे ही हैं पहली बार मुलाकात हुई थी जहाँ
वैसे ही हैं रास्ते और लोगों की चहल-पहल
सिर्फ तुम्हारी अनुपस्थिति के अँधेरे में खो जाते हैं सब रंग

सोना पिघलकर फैला हो जैसे, मुस्कुराते हैं
सुनहरी धूप के पर्वत
मन्दिर पर बजती रहती हैं घण्टियों की ध्वनि
और रेंगता रहता है कीड़ों की तरह समय
मै बस खोया रहता हूँ सवालों की चारकोस झाड़ियों में

अविस्मर्णीय इक गर्भवती साँझ
जन्म देगी कहता था इक सुन्दर सुबह को !

मूल नेपाली भाषा से अनुवाद : राजकुमार श्रेष्ठ