एक काँधा बोझ बाँटे चार का / सूरज राय 'सूरज'
एक कांधा बोझ बांटे चार का।
रास्ता है इक यही उद्धार का॥
पेश्तर अल्फ़ाज़ से लहजा है, जो
आईना है आपके क़ि रदार का॥
जिस तरह जल्लाद माँ की गोद में
म्यान से रिश्ता वही तलवार का॥
यूँ ही साज़े-दिल कभी रोता नहीं
तार कोई टूटता है तार का॥
मैं ख़ुदा से भी नहीं डरता अज़ल
डर मुझे है कोई तो, परिवार का॥
झूठ को सपने दिखा कर बेचना
क़ायदा तो है यही व्यापार का॥
पूछती हैं आपकी कारें नई
लोन बाक़ी है पुरानी कार का?
देख जिसको छुप गई बेटी मेरी
वो बड़ा बेटा है साहूकार का॥
क्या करिश्मा आग बस्ती में लगे
घर नहीं जलता मगर सरदार का॥
पोंछना या फिर उठाना गन्दगी
काम अब ये ही बचा अख़बार का॥
एक भी पत्थर पिघलता ही नहीं
दोष सारा आँसुओं की धार का॥
सर रहे तक नोंच न पाया अदू
एक भी धागा मेरी दस्तार का॥
फ़र्श पर गद्दे ओ गदराए बदन
लग रहा ये घर किसी गद्दार का॥
घर की रोटी-दाल सेहत की वजह
हम कभी खाते नहीं बाज़ार का॥
रो पड़ा "सूरज" दिये के सामने
क्या मिटेगा तम कभी संसार का॥