एक किरण धूप अचानक / गुल मकई / हेमन्त देवलेकर
वह अचानक आई
भरे डबकों की आँखें चौंधियाईं
वह इस तरह आई
जैसे बचपन में खोई बच्ची
अचानक लौट आए जवानी में
अपनी पहचान याद दिलाते
दिखाये तलुवों पर बने छांव के तिल
वह अचरज से ज़्यादा संदेह की तरह आई
बूढ़ी रज़ाइयाँ उसे
जेठ का जिन्न मानतीं
अचार-मुरब्बे की बरनियाँ उसे
मायावी जादूगरनी कहतीं
छातों ने आगाह किया- “न देखें आसमान में”
मानों वह ग्रहण काल में ग्रसित हो रहा सूरज हो
सब डरते थे
उस किरण से
क्योंकि वह तोड़ती थी भरोसा
छत पानी में गलता इकतारा थी
एक किरण धूप ने आँख झपकते
कस दिया ढीला पड़ा तार
गीली सलवार-कमीज़ें भागीं छत की ओर
भीगे दुपट्टे भी भागे
पीछे-पीछे सीलन भरे कपड़े सारे
छत रंग और उमंगों से खिला एक बाग़ हुई
बूढ़ी रजाइयाँ लाख मना करती रहीं
झल्लाती रहीं बरनियाँ
छातों ने उन्हें काफ़िर तक कह डाला
दुपट्टे रस्सी कूद रहे थे
सलवारें झूला झूलने में गर्क
कुछ कपड़े तनी रस्सी पर बाज़ीगरी दिखा रहे थे
खेलों में मगन थी पूरी छत
तभी बादलों की गगनभेदी गर्जना
और एक किरण धूप का
अचानक बिजली में बदलना
अपने बदन समेटने से पहले
घिर गए सब तेज़ बारिश में
बूढ़ी रज़ाइयों, बरनियों, छातों की गालियों को
बादलों की गड़गड़ाहट ढाँपती रही