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एक कोशा हो गई पागल / ध्रुव शुक्ल
Kavita Kosh से
रूठकर सब कोशिकाओं से
देह की वह भागती-फिरती
सबको मारती पत्थर
एक कोशा हो गई पाग़ल
वह देह के भीतर
अलग से देह रचना चाहती है
चाहती है अलग अपना ख़ून
अलग अपना माँस
अपनी नसें
अपनी नाड़ियाँ
अपनी अलग आँगन बाड़ियाँ
बिन नाक-नक्शे का
अचानक उभरता है एक बीहड़
लुटेरे रोज़ आते हैं
गाँव सारे काँप जाते हैं
ज़िन्दगी की झुरमुटों में
पल रहा वर्षों पुराना विष
बाहर निकल कर
मारता है डंक