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एक क्षण के लिए / भवानीप्रसाद मिश्र
Kavita Kosh से
एक क्षण के लिए जब
अपने को आप जैसा पाया मैंने
आसमान तब
सिर पर उठाया मैंने
और दे मारा मैंने उसे
ज़मीन पर
हंसी आ गयी तब मुझे
उस क्षण यह सोचकर
कि कितना इसका शोर था
इसी में रात थी
इसी में भोर था
और अब यह
यों छार छार पड़ा है
आपके जैसा होने का मज़ा
ख़ासा बड़ा है
मगर एक क्षण के लिए
सदा तत्पर नहीं रह सकता मैं
इतने निरर्थक रण के लिए
जिसमें आसमान
सिर पर उठाना पड़ता हो
पटकना पड़ता हो जिसमें
सूरज को ज़मीन पर!