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एक ख़त चलते-चलाते / प्रतिभा सक्सेना

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एक ख़त चलते-चलाते ज़िन्दगी के नाम लिख दूँ!
लिखा है आधा-अधूरा बहुत बाकी रह गया पर,
तू अगर चाहे बता सारे सुबह औ'शाम लिख दूँ .

जो दिया तूने उसे स्वीकार नत-शिर कर निभाया
हार है या जीत मेरी तो समझ में कुछ न आया,
व्यक्त कर पाऊँ स्वयं को, शब्द की सामर्थ्य सीमित
जो रहा शायद कभी आ जाय तेरे काम, लिख दूँ

ज़िन्दगी थी क्या कभी तू, किन्तु अब क्या हो गई है
बदलते परिवेश के सब तथ्य ख़ुद ही धो गई है
दोष दे या सही माने, तू व तेरा काम जाने,
कहे तो इन अक्षरों में फिर वही पहचान लिख दूँ!

क्या पता कितना जमा था खर्च मेरे नाम कितना,
जो उधार अभी पड़ा, मुश्किल बहुत उससे निबटना
बही के इस सफ़े का सारा हिसाब रुका पड़ा है,
भूल-चूक रफ़ा-दफ़ा, यह नोट सब के नाम लिख दूँ ?

जानना चाहा जभी, सब ब्याज अपने नाम पाया
जोड़ पाई मैं कहाँ कुछ भी न मेरे काम आया
रंग इतने देख कर तो चकित-विस्मित रह गई
अब नफ़ा औ'नुक्सान सब बेकार, बस अनुमान लिख दूँ!

पाठ का इति तक अगर सारांश बोले तो बता दूँ
व्यक्त जितना हो सके उतना सही, कहकर सुना दूँ
शिकायत कोई नहीं, बस एक बार जवाब दे दे-
अंत पूर्ण-विराम, या कुछ बिन्दु डाल प्रणाम लिख दूँ ?