एक ख़त तुम्हारे नाम का / सोनी पाण्डेय

जब पहली बार आई थी ब्याह कर ससुराल
सब कुछ उलट -पलट था
न लोग मन के थे
न चीजें
न ही किसी से मन की बात कह सकती थी
और एक दिन दोपहर में
चुपके से बैठी
एक ख़त लिखा
लिखा की कैसे रह लेतीं हैं लड़कियाँ
एक अजनबी दुनिया में
कैसे सह लेती हैं ताने माँ-बाप के नाम का
जब कि सब की सब औरतें थीं
आई किसी न किसी देस से उखड़ कर
क्यों कर नहीं रखती याद
कि वे भी गुज़रीं थी मेरे दौर से....
बनाते हुए पहली रसोई
काँपते हुए हाथों से बार- बार याद करती तुम्हें
जानती थी
ये मेरी नहीं तुम्हारी परीक्षा है
सिलते हुए सास का पहला पेटिकोट
डरी थी इतना
कि जितना डरती थी नीम की भूतनी से
जानती थी
ये मेरी नहीं तुम्हारी परीक्षा है
महीनों देती रही
अनगिन परीक्षा
और करती रही सैकड़ों जतन
तुम्हें पास करने की
इन तमाम परीक्षाओं से जितना डरी
उतना नहीं डरी बोर्ड की परीक्षाओं से
लिखना चाहती थी ख़त में
उन तमाम यातनों की मनोदशा
लिखती और फाड़ती रही
वह पहला ख़त आज भी अपूर्ण है
जिसे परीक्षाओं के बढ़ते क्रम में
बार-बार लिखती और फाड़ती रही मैं
सोचती हूँ
एक दिन तुम्हारी ही तरह बैठ कर चौखट पर
समझाती मिलूँगी
कि बेटियाँ माँ का मान और अभिमान है
इस लिए उतना ही लिखें ख़त में
जितना पढ़ सकें माँ...

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