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एक ख़याल, बुन्दा-बुन्दा सा / आनंद खत्री
Kavita Kosh से
कैसे रहा ज़ुल्फ़ की
तहरीर में गुम
एक ख़याल
बुन्दा -बुन्दा सा।
कभी-कभी झाँकता है
नज़र आता है
एक ख्याल
बुन्दा -बुन्दा सा।
काक के कोहराम सी
बेसाध लटें
उलझी हुई तश्बीहों को बुन
नज़र को मूंद चुकी थीं लेकिन
फिर भी कानों में
छनकता है
एक ख़याल
बुन्दा -बुन्दा सा।
साँसो की स्याही को
जिस्म की दवात पर
बार-बार बे-लिखे डुबोया
बेबसी में कुछ ढूँढने को
पलकों के कोरेपन पे
अनकही कुछ गूंथ रहा था
एक ख्याल
बुन्दा -बुन्दा सा।
तेरी ज़ुल्फ़ों की
भटकी हुई गलियाँ
मेरे जिस्म के
भूले हुए दायरों से
गुज़रा करती हैं
इन गलियों के बेसाध सायों में
छनकता है एक ख्याल
बुन्दा-बुन्दा सा।