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एक ख़याल / शुभा
Kavita Kosh से
वह टीला वहीं होगा
झड़बेरियाँ उसपर चढ़ जमने की कोशिश में होंगी
चींटियाँ अपने अण्डे लिए बिलों की ओर जा रही होंगी
हरा टिड्डा भी मुट्ठी भर घास पर बैठा होगा कुछ सोचता हुआ
आसमान में पाँव ठहराकर उड़ती हुई चील दोपहर को और सफ़ेद बना रही होगी
कीकर के पेड़ों से ज़रा आगे रुकी खड़ी होगी उनकी परछाँई
कव्वे प्यासे बैठे होंगे और भी सभी होंगे वहाँ
ऐसे उठँग पत्थर पर जैसे कोई सभा कर रहे हों
हवा आराम कर रही होगी शीशम की पत्तियों में छिपी
हो सकता है ये सब मेरी स्मृति में ही बचा हो
यह भी हो सकता है मेरी स्मृति न रहे
और ये सब ऐसे ही बने रहें।