एक खिलौना : मैं /पृथ्वी पाल रैणा
भूत-भविष्य में न जाने
इतना आकर्षण कैसे है ।
जो सम्मुख है उस पल को
मैं भी ठुकरा देता हूँ ।
क्यों मन भी मरघट की नाईं
मुर्दों को ही सहलाता है ।
न जाने क्यों
सोच अजन्मों के बारे में
इतना भय उपजाता है ।
पश्चिम में जब
ढलते सूरज को देखें
तब लगता है,
इतना थका हुआ है
बेचारा कल कैसे उग पाएगा।
लेकिन सूरज तो अडिग
खड़ा है एक जगह
वह बेचारा
भूत-भविष्यत् क्या जाने ।
मैं ही बौराया हूँ
मन के समझाने से
सूरज को भी थका हुआ
कहने लगता हूँ ।
कल क्या होगा
इसका डर भीतर जगते ही
बीते कल से
खोज के कडियाँ
मन ही मन
सपने बुनता हूँ ।
सोच है शायद
सोच ही होगी
मृत सपने कैसे जीतेंगे
जीवित भय को
फिर भी मानव जीवन
ऐसे ही चलता रहता है ।
मैं तो केवल
एक खिलौना हूँ
मन के हाथों में
वह जैसे चाहेगा
मुझसे खेलेगा ही ।