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एक ग़ज़ल / सरयू सिंह 'सुन्दर'
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अटल संकल्प का मानव हिमालय को हिला सकता ।
सफलता का सुमन वह पत्थरों पर भी खिला सकता ।
लुटा विश्वास जो, मानव बना निष्प्राण लगता है,
उसे संजीवनी देकर अचानक वह जिला सकता ।
कठिन पथ पर पहाड़ों सी खड़ी जो लाख बाधाएँ,
उन्हें वह ठोकरों से तोड़ माटी में मिला सकता ।
निराशा - सिन्धु में डूबे नपुंसक - से बने हैं जो,
उन्हें पुरुषत्व देने के लिए अमृत पिला सकता ।
उधर की मेखला हिलती, जिधर वह पग बढ़ाता है,
कि अपने बाहुबल से जीत अलका का किला सकता ।
गगन को बाँधकर वह तो धरा के पाँव पर पटके,
कि वह निर्बल जनों को विश्व भर का बल दिला सकता ।
सदा ही युगपुरुष होता अनोखा और चमत्कारी,
पुरातन हो गया है जो, बदल वो सिलसिला सकता ।