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एक चट्टान है जो टूटती ही नहीं / दिनेश्वर प्रसाद
Kavita Kosh से
एक चट्टान है जो टूटती ही नहीं
सदियों से जमी हुई परतों पर
नई परतें जम गईं
उजड़ी हुई काई हरी होने लगी
टकराने वाले सिर चूर हो गए
चोट करने वाले हाथ थमने लगे
और घाटियों को
गर्जन से भरते हथौड़ों की गूँज बन्द हो गई
एक चट्टान है जो टूटती ही नहीं
आत्मरक्षी भुजाओं का बल
आत्मकवच विचारों की ऊर्जा
अँजलियों से अर्पित अर्ध्य की तरह
इसे समर्पित हैं
काल की दूरियों पर पँख मार
अचल चट्टान यह —
यह चट्टान टूटती ही नहीं
मत डरो
मत करो शिलावन्दन
दुख और आहों से गढ़े हुए नए हाथ
नए हथौड़े उठा चुके हैं
नई चोटों के गर्जन से
घाटियाँ गूँजने लग गई हैं —
नए असंख्य हाथ !
(09 फरवरी 1984)