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एक चाय की चुस्की / उमाकांत मालवीय
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					एक चाय की चुस्की 
एक कहकहा 
अपना तो इतना सामान ही रहा । 
चुभन और दंशन 
पैने यथार्थ के 
पग-पग पर घेर रहे 
प्रेत स्वार्थ के । 
भीतर ही भीतर 
मैं बहुत ही दहा
किंतु कभी भूले से कुछ नहीं कहा । 
एक अदद गंध 
एक टेक गीत की 
बतरस भीगी संध्या 
बातचीत की । 
इन्हीं के भरोसे क्या-क्या नहीं सहा 
छू ली है सभी, एक-एक इन्तहा ।
एक क़सम जीने की 
ढेर उलझनें 
दोनों ग़र नहीं रहे 
बात क्या बने । 
देखता रहा सब कुछ सामने ढहा 
मगर कभी किसी का चरण नहीं गहा ।
	
	