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एक चुनौती / श्यामनन्दन किशोर

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तुमने मुझे चुनौती दी है-
नहीं प्रार्थना मेरी पिघला सकती पत्थर!
अचल प्रेम के दीवाने की
शक्ति न परमित मान!
उसकी शक्ति अजेय, कंठ में
जिसके विह्वल गान।

मरु में लहरा देता जीवन नश्वर जलधर!
फिर न प्रार्थना क्यों पिघला सकती है पत्थर!

मन का दृढ़ विश्वास
बना देता जड़ को गतिमान!
यदि पूजूँ मैं मिट्टी को
वह बन जाए भगवान!

सदा पात्र पर ही देने वाले की क्षमता निर्भर!
फिर न प्रार्थना क्यों पिघला सकती है पत्थर!
कातर मन के उफनाने का
बल है बड़ा अनोखा!
पतली धार उमगती जब,
क्या तट का लेखा-जोखा!

चरण नहीं, रज ही छूती है उड़कर अम्बर!
फिर न प्रार्थना क्यों पिघला सकती है पत्थर!