भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक छप्पर भी नहीं / अश्वघोष
Kavita Kosh से
एक छप्पर भी नहीं है सर छिपाने के लिए
हम बने है दूसरों के घर बनाने के लिए
बन चुकी पूरी इमारत आपका कब्ज़ा हुआ
हम तरसते ही रहे बस आशियाने के लिए
जेब मे रखकर वो चेहरे को हमारे चल दिए
जानते है, जा रहे है फिर न आने के लिए
बिजलियाँ चमकें, गिरें, हमको नहीं परवाह अब
नींव तो रख जाएँगे हम आशियाने के लिए
उसने एक दीपक जलाया, ये भी तो कुछ कम नहीं
कुछ तो कोशिश की अन्धेरे को मिटाने के लिए