भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक छोटा लड़का / संध्या रिआज़

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सड़क पर बोरा लिए
कागज़ बटोरता हुआ एक लड़का
अपने बचपन को छिपाने की चेष्टा करता
अपने मन को मार आंखों को ज़मीन पर टिकाता
इधर -उधर ज़मीन पर नज़र दौड़ाता
चला जा रहा था
सड़क पर सामने से आते हुए
उसके जैसे हमउम्र बच्चे
बचपन से भरे हंसते -खिलखिलाते
साफ सुथरे उनके कपड़े
और कपड़ों के जैसे उनके साफ खिले चेहरे
झुण्ड में स्कूल के लिये निकल रहे थे
लड़का उन्हें देख सकुचाता है
खुद को बोरे के पीछे छिपाता है
और पसीने से भीगा चेहरा पोंछ
आगे बढ़ जाता है
आगे खूबसूरत बाग रंग बिरंगे फूल
खिलौनों की दुकानें और दुकानों पर
अपना खिलौना चुनते बच्चे
मां-बाबा से अपना खिलौना लेने की ज़िद कर रहे थे
लेकिन इस लड़के को कुछ भी नहीं दिख रहा था
या वो देखना नहीं चाहता था
सिवाय कागज़ के टुकडे़ के
उसने कभी कोषिष भी नहीं की
कुछ भी देखने की
ष्षायद मालूम होगा उसे
चाहना और पाना दो अलग-अलग बातें हैं
अपनी उम्र से भी बड़ा बना दिया था उसे
इन रास्तों और बिखरे हुए कागज़ों ने
वो जानने लगा था षायद
उसकी चाह सड़कों और कागज़ों तक ही सीमित है
ये चलते फिरते सपने और सपने जैसे रंग भरे
बच्चे बनना उसकी कल्पना से भी बाहर था
ष्षाम होने से पहले इस बोरे को कागज़ से भरता है
बिकने पर बीस रुपये कमाता है
उससे दो रोटी और एक चाय खरीद
भूखे पेट को भरके सो जाता है
सुबह होते ही अपना बोरा लेके
फिर सड़कांे पर आ जाता है
एक नई आस के साथ
काष! उसका बोरा आज जल्दी भर जाए
और रोटी खाके वो जल्दी सो जाए
देखेगा सपने
सपने जैसे साफ-साफ बच्चों के
जहां वो उनमें से एक होगा
हाथ में बोरा नहीं बस्ता होगा
और बस्ते में मां का दिया खाने का डिब्बा होगा
जिसमें पेट भर खाने को खाना होगा..............
तभी एक डंडा उसकी पीठ पर पड़ता है
हवलदार उसे जगाकर फुटपाथ से भगाता है-
कब तक सोयेगा हीरो! काम पे नहीं जाना है!!!