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एक छोटी भूल / विमल राजस्थानी

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एक छोटी भूल, पर, कितनी सजा उसकी बड़ी है
जिन्दगी दुख-दर्द की बैसाखियों पर ही खड़ी है
माँग में सिन्दूर भर जो
लालिमा ली मोल मैंने
बाँध अपने ही करो-
डाला गले जो ढोल मैंने
लालिमा से गौर मुख-मण्डल सदा पड़ता सजाना
रात-दिन उस बेसुरे को आह ! पड़ता है बजाना
पास ‘एम.ए’ कर मुझे पढ़नी पड़ी ‘बारहखड़ी’ है

भूलकर भी स्वप्न
आँखों में सजाना तो मना है
तारा पर थिरका उँगलियाँ
गुनगुनाना तो मना है
भाग्य में है-श्रुति-पुटों में गगनभेदी चीख़ भरना
साश्रु पड़ता देखना मृदु कल्पनाओं का सिहरना
वर्ष बीते, चाँद का मुखड़ा न देखा
कब उगी मुख पर स्मिति की रजत रेखा
भाल उन्नत रह सका कब, भूमि पर आँखें गड़ी हैं

जो नहीं रीती, नहीं भरपूर है जो
पास रहकर भी हृदय से दूर है जो
यह नहीं-अधिकार उसके काटता हूँ
देय है जो प्यार, उसको बाँटता हूँ
ये नियम, आदर्श, वैदिक मन्त्र सारे
यह नहीं है बात मुझको नहीं प्यारे
किन्तु मैं सैनिक न जो बारूद ढोऊँ
गीत लिखने को छुई बस फुलझड़ी है