भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक छोटे-से शहर में / योसिफ़ ब्रोदस्की

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक छोटे-से शहर में शिशिर की हवा
शहर जो अपनी उपस्थिति से चमकता है मानचित्र पर
(मानचित्र बनानेवाला शायद अधिक उत्साह में था
या नगर के न्यायाधीश की बेटी के साथ सम्बन्ध बना चुका था) ।

अपनी विचित्रताओं से यह जगह
उतार फेंकती है जैसे महानता का बोझ और
सीमित हो जाती है मुख्य सड़क तक ।
और काल रूखी नज़र से देखता है औपनिवेशिक दुकान की तरफ़
दुकान के भीतर भरा है सब कुछ
जिसे पैदा कर सकती है हमारी दुनिया
दूरबीन से लेकर छोटी-सी सूई तक।

इस शहर में सिनेमा हैं, सैलून हैं और
चिक से ढका एक अदद कॉफ़ी हाउस है
ईंट से बनी बैंक की इमारत है
जिसके ऊपर एक बाज बना है फैले पंखों वाला
और एक गिरजाघर है जिसे भूल चुके होते लोग
यदि पास में न होता अनेक शाखाओं वाला डाकघर ।
और यदि यहाँ बच्चे पैदा नहीं किए जा रहे होते
तो पादरी को नाम देने के लिए कोई न मिलता
सिवा मोटरगाड़ियों के ।

यहाँ की ख़ामोशी को सिर्फ़ टिड्डे तोड़ते हैं
छह बजे शाम को जैसे परमाणु-युद्ध के बाद
दिखाई नहीं देता एक भी आदमी ।
चाँद तैरता हुआ प्रवेश करता है वर्गाकार खिड़की में ।
कभी-कभी कहीं दूर से आती शानदार हेडलाइट
रोशन कर देती है अज्ञात सैनिक के स्मारक को ।

यहाँ तुम्‍हारे सपनों में निकर पहने कोई औरत नहीं आती
बल्कि दिखाई देता है लिफ़ाफ़े पर लिखा अपना ही पता ।
यहाँ सुबह फटे हुए दूध को देखकर
दूध देने वाला जान लेता है तु्म्हारी मौत के बारे में ।
यहाँ जिया जा सकता हे यदि भूल सको पंचांग
पी सको ब्रोमाइड और निकल न सको बाहर कहीं
दर्पण में देख सको
जिस तरह सड़क की बत्तियाँ
देखती हैं सूखे पोखर को ।