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एक जनम / प्रतिभा सक्सेना
Kavita Kosh से
मुक्ति नहीं,
एक जनम, मगन-मगन, !
तन्मय विशेष
कुछ न शेष.
पूर्ण लीन,
मात्र अनुरक्ति
हो असीम तृप्ति,
सिक्त मन-गगन
एक जनम .
धरा हो ऋतंभरा,
जीवन संतृप्ति भरा
तन, मन विभोर
निरखें दृग कोर,
मेघ वन-सघन .
एक जनम!
मुक्ति नहीं,
हो अनन्त राग,
विरहित विराग.
लहर-लहर दीप,
सिहर-सिहर प्रीत
नृत्य-रत किरन.
एक जनम!
भर-पुरे अस्त उदय
भाव-भेद शमित,
परम तोष,
शमित ताप.
स्निग्ध दीप्तिमय गगन.
एक जनम,
मुक्ति नहीं,
परम परिपूर्ण मगन,
लघु भले कि लघुत्तम
एक जनम.
जनम-जनम की मिटे थकन
एक जनम!