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एक जा हर्फ़े-वफ़ा का लिक्खा था सो भी मिट गया / ग़ालिब

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एक जा<ref>जगह</ref> हरफ़<ref>अक्षर</ref>-ए-वफ़ा लिक्खा था सो भी मिट गया
ज़ाहिरन काग़ज़ तेरे ख़त का ग़लत-बरदार<ref>गलतीयां मिटाने वाला</ref> है

जी जले ज़ौक़-ए-फ़ना<ref>मिट जाने का जोश</ref> की ना-तमामी<ref>खोट</ref> पर न क्यूं
हम नहीं जलते, नफ़स<ref>सांस</ref> हर-चन्द<ref>हर वक्त</ref> आतिश-बार<ref>आग-बरसाती</ref> है

आग से पानी में बुझते वक़्त उठती है सदा
हर कोई दर-मांदगी<ref>मुसीबत</ref> में नाले<ref>रोना</ref> से ना-चार<ref>मजबूर</ref> है

है वही बद-मस्ती-ए-हर-ज़र्रा<ref>हर कण की मस्ती</ref> का ख़ुद उज़र-ख़्वाह<ref>क्षमा-याचक</ref>
जिस के जलवे से ज़मीं ता आसमां सरशार<ref>शराबी</ref> है

मुझ से मत कह, "तू हमें कहता था अपनी ज़िन्दगी"
ज़िन्दगी से भी मेरा जी इन दिनों बे-ज़ार<ref>ऊबा हुआ</ref> है

आंख की तस्वीर सर-नामे<ref>लिफ़ाफ़ा</ref> पे खेंची है, कि ता
तुझ पे खुल जावे कि उस को हसरत-ए दीदार है

शब्दार्थ
<references/>