भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक जोड़ी पैर / मंजूषा मन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जीवन भर
देखे उसने
बस एक जोड़ी पैर
और सुनी
एक रौबदार आवाज
"चलो"

और वो चलती रही
एक जोड़ी पैरों के पीछे
करती भी क्या?
बचपन से यही सीखा
सिर नीचे रखो!
नज़र नीचे रखो!

देख भी क्या पाती
नीची गर्दन से
नीची नज़र से

उसे तो दिखे
बस एक जोड़ी पैर
जो दिशा दिखाते रहे
और धीरे धीरे
वो औरत से
भेड़ में बदल गई

जब भी सुनती
"चलो"
तो बस चल देती
एक जोड़ी पैरों के पीछे
बस यही जानती है वो
ये एक जोड़ी पैर
और ये आवाज है
उसकी…
जो मालिक है
जीवन का।