एक झुर्री चन्द सफ़ेद बाल और आइसोटोप-3 / तुषार धवल
एक झुर्री चन्द सफ़ेद बाल और इस सबके साथ इस पूरी प्रणाली में एक आइसोटोप मैं
चालीस साल से वहीं टँगा हुआ हूँ कहीं नहीं के मध्य
देश काल की विपरीत रति में
त्रिशंकु, शिखण्डी या अपुरुष या भेद-अभेद के पार अष्टम चरम की खोज में
इस तीसरे पहर भी जब चाँद थक चुका है
यार-दोस्त पार्टी की शराब पी कर जा चुके हैं उधेड़े गए गिफ्ट रैपर्स पंखे की मन्द हवा में इधर-उधर सिर झुला रहे हैं मैं ढूँढ़ रहा हूँ शब्द कैनवास पर छाए शून्य को भरने के लिए
उसी शून्य से कई आँखें मुझे घूरती हैं जिनकी अपेक्षा मैं पढ़ पाता हूँ उनकी फुसफुसाहट सुन पाता हूँ उन निज़ामी मंत्रणाओं को भी सुलह की आड़ में जो उन आँखों में गूँगे ख़ौफ़ की सिल्लियाँ उतारती हैं जो सूरज की रोशनी में सामान्य मान लिया जाता है टी० वी० की बहसों और फ़ेसबुक के आन्दोलनों में तमाम ‘Like’ और ‘Share’ के बीच
कोई ममता से भर कर कहता है लौट जाओ अब बाग़बानी मत करो रात की थोड़ी नींद बचा लो बुरे वक़्त के लिए
अभी और भी झुर्रियाँ आएँगी समय से पहले सर गंजा हो जाएगा स्वर थरथराने लगेगा थोड़ी ताक़त बचाए रखो भुजाओं की नए मक़बरों के लिए पुराना बहुत कुछ ढाहना होगा
मज़ारों पर जब क़लमे पढ़े जाएँगे गुज़र जाने देना अपने ऊपर से बगूलों के झुण्ड को खुले आकाश के अनन्त मुँह में
हमारी दशा-दिशा वही तय करेगा
जिसकी भूख में सबसे अधिक ताक़त होगी